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समाज की स्मृति और अनुभवों का सार 'काका के कहे किस्से'

लोककथाएँ, छोटे-छोटे किस्से और कहावतें किसी भी समाज की स्मृति और अनुभवों का सार होती हैं। वे न केवल मनोरंजन का साधन बनती हैं बल्कि पीढ़ियों के अनुभव, मूल्य और जीवन-दर्शन को संप्रेषित करने का भी काम करती हैं। "काका के कहे किस्से" इसी परंपरा को आगे बढ़ाने का एक ईमानदार और सहज प्रयास है। पुस्तक के लेखक अमित कुमार मल्ल ने यहां न तो मौलिकता का दावा किया है और न ही किसी साहित्यिक प्रयोगवाद की दुहाई दी है। प्रस्तावना में लेखक का यह कथन विशेष ध्यान खींचता है कि “मैं यह दावा नहीं करता कि किस्से मौलिक हैं और न ही इनमें मौलिकता ढूँढी जानी चाहिए। इनमें बहुत से ऐसे किस्से व कहावतें हैं, जिन्हें आप पहले कहीं पढ़ चुके होंगे या सुन चुके होंगे। किस्से से अधिक महत्वपूर्ण है किस्से को पेश किए जाने का ढंग और उससे निकला संदेश।” इस कथन में लेखक का उद्देश्य साफ झलकता है कि वे इन कहानियों को ‘बौद्धिक संपदा’ के रूप में नहीं, बल्कि ‘सामूहिक लोक-संपत्ति’ के रूप में देख रहे हैं। यहां मौलिकता का आग्रह छोड़कर, संदेश की पुनर्प्रस्तुति पर जोर दिया गया है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है कि इन किस्सों का उद्देश्य ‘नएपन’ से अधिक ‘संदेश’ है और यही पुस्तक की सबसे बड़ी ईमानदारी है। यह पुस्तक 48 छोटे-छोटे प्रसंगों और उनके साथ जुड़े अनुभवों और जीवन-मूल्यों का संकलन है। अंत में ‘कहावतें’ नामक एक अलग खंड भी दिया गया है, जिसमें लोक-ज्ञान की संक्षिप्त और सारगर्भित पंक्तियाँ दर्ज (84 कहावतें) हैं। अनुक्रम से यह स्पष्ट है कि पुस्तक के प्रसंग विविध जीवन-स्थितियों और मानवीय व्यवहारों को छूते हैं — जैसे- काम, योग्यता, समानता, मीन-मेख निकालना, पैसा पैसे को खींचता है,  कलयुगी पैरोकार, जैसा सोच वैसे फल पावे, नियमित जीवन, असली पतिव्रता, सीखे के सीख , भय का असर, गृहस्थ की भक्ति,  माधुर्य की पहचान, भगवान जो करते हैं अच्छा ही होता है इत्यादि। इन शीर्षकों से ही अनुमान लगाया जा सकता है कि लेखक ने पारिवारिक, सामाजिक और व्यक्तिगत अनुभवों के विविध रंग समेटने का प्रयास किया है। 
इस पुस्तक की कहानियाँ और किस्से को मूलतः चार प्रमुख विषय-समूहों में विभाजित करके देखना ज्यादा उचित व तार्किक होगा।
1. व्यक्तिगत और आत्मिक मूल्य:
मन कर रहा है, स्व-निर्भरता, सच्चाई, हर स्थिति में, जैसा सोचा वैसा फल पावे जैसे शीर्षक आत्म-संयम, साहस, कर्म और चिंतन की शक्ति पर जोर देते हैं। इन प्रसंगों में यह संदेश बार-बार आता है कि व्यक्ति अपने विचारों और कर्मों का परिणाम स्वयं भोगता है।
2. सामाजिक और पारिवारिक मूल्य: 
अपना-अपना धर्म,  गृहस्थ की भक्ति, समानता, नियमित जीवन, सदाचारी, चीनी बाप-बेटे का आपसी विश्वास जैसे किस्से पारिवारिक रिश्तों, सामाजिक सद्भाव और भरोसे की महत्ता को रेखांकित करते हैं।
3. जीवन-दर्शन और व्यावहारिकता:
हर स्थिति में, दूर की सोच, संतुलन, भगवान जो करते हैं, अच्छा ही होता है, मातृभाषा की पहचान, असली पतिव्रता, सीखे की सीख, भय का असर इत्यादि किस्से जीवन की अनिश्चितताओं को स्वीकारने और उनसे सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ निपटने की प्रेरणा देते हैं।
4. शिक्षात्मक और प्रेरक प्रसंग:
लालच और जीवन का अन्तर्सम्बन्ध, सीख की सीख, सजा का स्तर, कमजोर की परिभाषा जैसे किस्से पाठक को सीख देते हैं कि पद, प्रतिष्ठा या शक्ति से अधिक महत्वपूर्ण नैतिक मूल्यों की स्थिरता है।
मसलन, ‘समानता’ नामक किस्से से यह स्पष्ट ध्वनित होता है कि मजदूरी केवल अनाज या पैसे से नहीं, बल्कि मान-सम्मान और व्यवहार से भी मापी जाती है। रामसुमेर अधिक मजदूरी (5 सेई) देने के बावजूद मजदूर नहीं जुटा पाए जबकि उनका पट्टीदार कम मजदूरी (4 सेई) देकर भी मजूरों को आकर्षित करता रहा। मजदूरन का यह कथन — “इ कम मजूरी देन जरूर, लेकन बराबर मान के हँसी-ठिठोली भी करेन, जेसे काम बोझ नाही लागेला।” एक सामाजिक सत्य को उद्घाटित करता है — आर्थिक प्रोत्साहन तभी प्रभावी होता है जब उसके साथ मानवीय गरिमा और अपनापन भी हो। "असली पतिव्रता" यह कथा पतिव्रता की पारंपरिक परिभाषा को तोड़ते हुए एक व्यावहारिक और विडंबनापूर्ण सच्चाई सामने लाती है। राजमहल की महिलाएँ मानसिक व भावनात्मक कारणों से स्वयं को ‘पूर्ण पतिव्रता’ मानने से इनकार करती हैं, जबकि एक वेश्या स्वयं को "पूर्ण पतिव्रता" घोषित करती है —“मेरा पति पैसा है। मैं पैसे के प्रति सदैव निष्ठावान रही।” यह कथन व्यंग्य के माध्यम से मानव समाज में निष्ठा, मूल्य और दृष्टिकोण की सापेक्षता को उजागर करता है। महात्मा का इस बात को स्वीकार करना यह संकेत देता है कि परिभाषाएँ और आदर्श भी परिस्थितियों के अनुसार बदलते हैं। "योग्यता" नामक कथा में गोलू का तर्क था कि तीरथ ने गाँव में अस्पताल और सड़क बनवाकर विकास कार्य किए हैं, इसलिए उसे वोट मिलना चाहिए। परंतु बूढ़ी काकी का उत्तर — “ठीक बा, ऊ कवनो काम नइखे कइले। लेकिन ऊ केहू क कुछ बिगड़लो त नइखे।” यह बताता है कि ग्रामीण समाज में चुनाव का मूल्यांकन केवल किए गए कामों से नहीं, बल्कि व्यक्ति के नकारात्मक प्रभाव की अनुपस्थिति से भी होता है। यहाँ ‘नुकसान न पहुँचाना’ भी ‘योग्यता’ का एक मानदंड बन जाता है। इन कथाओं में लोकभाषा, मुहावरे और ग्रामीण कहावतों का प्रयोग इन्हें जीवन्त और विश्वसनीय बनाता है। हर कहानी में पात्रों का संवाद केवल घटनाक्रम को नहीं बढ़ाता, बल्कि पाठक के सामने एक सामाजिक विमर्श खोल देता है। व्यंग्य, हास्य और नैतिक शिक्षा का संयोजन इन्हें ‘कथोपकथन शैली’ का उत्कृष्ट उदाहरण बनाता है।
"काका के कहे किस्से" केवल कहानी-संग्रह नहीं, बल्कि ग्रामीण अनुभवों का वह दर्पण है जिसमें मानवीय स्वभाव, लालच, निष्ठा, सम्मान, सतर्कता और भाग्य जैसे शाश्वत विषय प्रतिबिंबित होते हैं। इसकी प्रासंगिकता इसलिए भी स्थायी है क्योंकि इसमें वर्णित मूल्य समय, समाज और पीढ़ी — सभी से परे हैं। इन कथाओं को पढ़ते हुए पाठक न केवल मनोरंजन पाता है, बल्कि जीवन को देखने की एक नई दृष्टि भी हासिल करता है। लेखक की भाषा सरल, स्पष्ट और बोलचाल के मुहावरों से युक्त है। चूंकि इन किस्सों का आधार मौखिक परंपरा है, इसलिए भाषा में आडंबर नहीं है। संवाद-शैली का उपयोग पाठक को सीधे ‘काका’ के सामने बैठा देता है, मानो वे खुद यह प्रसंग सुना रहे हों। वाक्य छोटे और प्रभावी हैं, जिससे संदेश सीधे हृदय तक पहुँचता है। उदाहरण के तौर पर, कई किस्सों का अंत एक पंक्ति में सारांश देकर किया गया है — यह न केवल पढ़ने में सहजता लाता है बल्कि संदेश को भी स्मरणीय बना देता है। पुस्तक में प्रत्येक किस्सा अलग शीर्षक के साथ दिया गया है, जिससे पाठक अपनी रुचि के अनुसार चयन कर सकता है। प्रत्येक किस्से का आकार 1-2 पृष्ठ का है, जो त्वरित पठन के लिए उपयुक्त है। अंतिम खंड ‘कहावतें’ एक तरह से पूरी पुस्तक का सार है — छोटे-छोटे वाक्यों में बड़े जीवन-सत्य। पुस्तक के सकारात्मक पक्षों की चर्चा करें तो पहला की यह हर किस्से का निष्कर्ष स्पष्ट और सरल है, जिससे सभी आयु वर्ग के पाठक इसे समझ सकते हैं। दूसरा अधिकांश किस्से सीधे हमारे रोज़मर्रा के जीवन और अनुभवों से जुड़े हैं। तीसरा छोटी-छोटी कहानियाँ पाठक का ध्यान बनाए रखती हैं। चौथा पुस्तक मौखिक लोककथाओं और कहावतों के संरक्षण का कार्य करती है और पांचवां यद्यपि किस्से मौलिक नहीं, लेखक का प्रस्तुतीकरण उन्हें नया रूप देता है। पुस्तक के नकारात्मक पक्ष नहीं बल्कि साहित्यिक पाठकों की अपेक्षा को लक्षित करते हुए इसका विश्लेषण किया जाए तो मौलिक रचनाओं की अपेक्षा रखने वाले पाठकों के लिए "सीमित आकर्षण" चूँकि लेखक ने स्वयं स्वीकार किया है कि सामग्री संकलित है, इसलिए नयेपन के खोजी पाठकों को यह थोड़ा साधारण लग सकता है। साथ ही भाषा सहज है, लेकिन कुछ जगहों पर साहित्यिक चातुर्य और रूपक-शक्ति का उपयोग इसे और प्रभावशाली बना सकता था। किस्सों के मूल स्रोत या कहावतों की उत्पत्ति का उल्लेख होता तो यह शोधार्थियों के लिए भी उपयोगी हो सकता था।
इस तरह यह पुस्तक केवल किस्सों का संग्रह नहीं बल्कि भारतीय लोक-मनीषा का जीवित दस्तावेज है। आज के डिजिटल और भागमभाग भरे युग में जब पारंपरिक कहानियाँ और कहावतें स्मृति से लुप्त हो रही हैं, यह संकलन उन्हें फिर से पाठकों के सामने लाता है। इसका महत्त्व इस बात में है कि यह पीढ़ियों के अनुभवों, नैतिकता और व्यवहारिक बुद्धि को सरल तरीके से नई पीढ़ी तक पहुँचाता है। यह पाठक को यह भी याद दिलाता है कि ‘नैतिक शिक्षा’ केवल पाठ्यपुस्तकों से नहीं, बल्कि रोजमर्रा के संवादों, किस्सों और कहावतों से भी मिलती है।

पुस्तक : काका के कहे किस्से
लेखक: अमित कुमार मल्ल
प्रकाशक: शिल्पायन बुक्स
मूल्य: रू 195 (पेपर बैक)
                                                               
समीक्षक: डॉ. सुबोध ठाकुर
सहायक प्राध्यापक (हिंदी)
सरकारी विनयन, वाणिज्य एवं विज्ञान कॉलेज 
उमरपाडा, सूरत , गुजरात
9540304668

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